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सय्यद मियां की टांगी / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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कमरे की दीवाल पर
खूंटियों के सहारे टंगी
टांगी को बहुत गौर से निरखते हैं सय्यद मियां
जिसे उनके वंश के नवाब पुरखे
शिकार करने साथ ले जाते थे
सवार होकर अरबी घोड़े की पीठ पर
अपने सिपहसलारों के साथ

पुरखों की निशानी को बड़ी
जतन से संजोते हैं वे
पिटवा खालिस लोहे की बनी टांगी
जिसमे लगा है सखुवे का बेंट
जिसे देखकर याद करते हैं अपने बुजुर्गों की वीरता
कि अंग्रेजों से कैसे मुकाबिल होते थे वे लोग
कैसे करते थे लूटेरों का सामना
अन्याय से लड़ने का कैसे अपनाते थे हौसला

आँगन में उगे अमरूद की गांछों को
दरवाजों की फांक से दिखती टांगी से
कटने का अब कोई भय नहीं होता
पिंजड़े का मिट्ठू सुग्गा उड़कर
जाना चाहता है टांगी पास
छतों पर टिक-टिक कराती गिलहरियाँ
खिलवाड़ करना चाहती है टांगी से

टांगी वाले कमरे से कुछ दूर बैठी
सय्यदा मोहतरमा पका रही होती है रसोई में
अनोखे पकवान
चींटियों के लिए छिड़क रही होती है अंजुरी भर चीनी
घर के मुंडेर पर आयी चिड़ियों को
चुगा रही होती है नवान्न के दाने
बधना से जल ढरकाकर
बुझा रही होती है उन कौवों की प्यास
जो सुनाते रहते हैं संसार भर की अच्छी खबरें
जिसे सुनकर बजती है घर-घर में कांसे की थाली
गाये जाते हैं गीत बधावे के
दरवाजे से आता है मेहमान का आने का सगुन

आँगन में रोपे तुलसी पौधे के समक्ष
मांगती हैं बारहां मन्नतें
तिलावत पर करती हैं अनगिनत दुआयें
कि हंसते खिलखिलाते लौट आये सबके बच्चे
सबकी बेटियों की हाथों में सजे खुशियों की मेहंदी
सबके चहरे पर छा जाये सावन के घुमड़ते बादल
गाँव की पगडंडियों की तरह शांत रहे हर का अंतरम
दीवाल की जानिब देखकर सोचते हैं सय्यद मियां
कि अपने भोथरे धार से
कैसे काट पाएगी टांगी
दुनियां-जहान के दुख-दलिदर वाले दिनों को