भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सरपंचन बन गई घरवारी / महेश कटारे सुगम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सरपंचन बन गई घरवारी ।
अब ऊ की है लम्बरदारी ।

सेवा काय मुफत में करवें,
हमनें ऊसेई नईं झक मारी ।

हम नईं कैहें जब तक कैसें,
खेरौ नापैगौ पटवारी ।

मिलहै जबई हाज़िरी सुन लो,
दारू की लग है रंगदारी ।

काय बनावें राशन कारड,
तुमनें वोट हमें का डारी ।

घरै पठा दो आदौ दरिया,
जबई चलन दें आँगनवारी ।

जितै चाय तुम करौ शिकायत,
सबखौं दै रये हिस्सेदारी ।