Last modified on 18 दिसम्बर 2022, at 09:51

सर्पों की घाटी / कैलाश वाजपेयी

Firstbot (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:51, 18 दिसम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश वाजपेयी |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आँखों में कडुआपन
मुट्ठी में अभाव
तन पर झिल्ली मढ़कर कोई
सर्पों की घाटी में
मुझे ढकेल गया
मैं ग्लोब चूसती हुई
सभ्यता की देशांतर रेखाओं में क़ैद पड़ा हूँ
(इस घाटी में)
यह घाटी अपने कंधों पर
शताब्दियों के काँटे बोये
इसी तरह अनबूझ रही है
अंधकार है-
मृत्यु-दंड पाने वाले की आँखों का-सा अंधकार
मैं ग्लोब चूसती हुई
सभ्यता की देशांतर रेखाओं में
क़ैद पड़ा हूँ
अभी-अभी इस अंधकार में
एक श्वेत धब्बा दीखा था
शायद दृष्टि रही होगी
घावों में फाये की तरह
निकट आकर
धुँधलाई बोली-
"मनु के बेटे
इस घाटी में तुमसे पहले का इतिहास
एक काला पन्ना है।
कितने मर्यादा पुरुषोत्तम
अपने सब विदेह सपनों के साथ
आत्महत्या करते मैंने देखे हैं
वह जो दुख का कारण और निदान खोजने
महाभिनिष्क्रमण कर
लौटा था
उसके सारे उपदेशों को
सर्पों की ज़हरीली साँसें
मूक कर गईं।
यक्ष प्रश्न की तरह ढीठ है
इस घाटी की वह आनील झील
जिसके तट काली हंस-पंक्ति लगते हैं
ना....झिल्ली मत तोड़ो-
बाहर मत आओ
मनु के बेटे
आलेखित, स्पर्श्य, घ्रात,
अभिलाषाओं के खंड जोड़कर
इस घाटी में
तुम कितने जी पाओगे
मनु के बेटे
इस घाटी में या तो मानव-पिंड
दुखी है
या फिर 'नहीं'
वह जो यहाँ दुखी है
उसने चाहा था जीवन से
उसके लिए ज़िंदगी केवल
केवल पश्चात्ताप बची है
वह जो 'नहीं'
संधि कर ली है उसने विकृतियों से
जीवन की गंदी से गंदी परिणतियों से । "
दृष्टि खो गई
गूँज मर गई
कोई भी आवाज़ नहीं देता अब मुझको
अस्वीकार करके भविष्य को
वीतराग होकर व्यतीत से
किसी केतु-सा
मैं अब भी तम की परतों में
क़ैद पड़ा हूँ।