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सर पे छत / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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सर पे छत, पाँवों तले हो बस गुज़ारे भर ज़मीन

काश हो हर आदमी को सिर्फ इतना सा यक़ीन


मुझसे जो आँखें मिलाकर मुस्कुरा दे एक बार

क्या कहीं पर भी नहीं है वो ख़ुशी, वो नाज़नीन


जो बड़ी मासूमियत से छीन लेता है क़रार

उसके सीने में धड़कता दिल है या कोई मशीन


पूछती रहती है मुझसे रोज़ नफ़रत की नज़र

कब तलक देखा करोगे प्यार के सपने हसीन


वक़्त की कारीगरी को कैसे समझोगे पराग

अक़्ल मोटी है तुम्हारी, काम उसका है महीन