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सलवा जुडूम के दरवाज़े से (1) / संजय अलंग


जंगल के बीच निर्वात तो नहीं था
सघनता के मध्य
समय दूर तक बिखरा था
और उसी से सामना था

उम्मीद की फसल जरूर उगाते
पर वह थी ही नहीं
न तब न अब
परछाइयों का टूटना असंभव है
मानव का भी

अपनी जमीन से हटे नहीं
पर हम वही करते रहे हैं
 जो कैदी करते हैं
धूल के मध्य आदम याद आता है
मैं नहीं