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सवर्णों को चेतावनी / अछूतानन्दजी 'हरिहर'

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राम-कृष्ण की पूजा करके चंदन-तिलक लगाते हो।
किंतु कुकर्मों के करने में, नेक न कभी लजाते हो॥
लकड़ी और नमक को धोकर चौके में ले जाते हो।
पर हमने आँखों देखा है, होटल में तुम खाते हो॥

यद्यपि हमारे लिये कुओं का, पानी बन्द कराते हो।
पारटियों में पर तुम जूठा पानी भी पी जाते हो॥
मन्दिर में हम जाते हैं, तो बाहर हमें भगाते हो।
बड़ी-बड़ी शानें भरते हो, हमें अछूत बतातेहो॥

किन्तु मन्दिरों में तुम पशु बन, अपनी लाज गँवाते हो।
देव-दासियों के संग में नित काले पाप कमाते हो॥
संड मुसंड पुजारी रखकर अबलों को फुसलाते हो।
इस प्रकार तुम धर्म नाम पर महाठगी कर खाते हो॥

छाया पड़े हमारी तुम पर, तो दो बार नहाते हो।
किन्तु यवन के साथ खुशी से हँसकर हाथ मिलाते हो॥
हम सेवा करते हैं जब तक, तब तक तुम ठुकराते हो।
किन्तु विधर्मी बन जाने पर अपने साथ बिठाते हो॥

हमको देख घृणित भावों को मन में सदा जगाते हो।
पास बिठाते हो कुत्ते को, हमको दूर भगाते हो॥
हमको तो ठुकराते हो तुम, उनको गले लगाते हो।
जिनको गोभक्षी कहते हो, जिनको यवन बताते हो॥

दंगे जब होते हैं, तब तुम दुबक घरों में जाते हो।
बहु-बेटियों तक की लज्जा डरकर नहीं बचाते हो॥
कभी जनेऊ को तुड़वाकर चोटी तक कटवाते हो।
ठाकुर-पूजा तिलक लगाना, भूल सभी तब जाते हो॥

त्राहि-त्राहि कर घर भीतर से तब हमको चिल्लाते हो।
काम हमीं तब आते, पर तुम हमको ही लड़वाते हो॥
होकर ऋणी हमारे ही तुम, हम ही को ठुकराते हो।
हम सेवा करते हैं, पर तुम हमको नीच बताते हो॥

हम तो शुद्ध-बुद्ध मानव हैं, पर तुम परख न पाते हो।
घुसे छूत के कीड़े सिर में, इससे तुम चिल्लाते हो॥
हम करते अब छूत-झड़ौवल, ठहरो, क्यों घबराते हो?
संभलो! क्यों अपने ही हाथों नष्ट हुए तुम जाते हो॥