भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सवाब की दुआओं ने गुनाह कर दिया मुझे / सरवत ज़ोहरा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:21, 20 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरवत ज़ोहरा }} {{KKCatGhazal}} <poem> सवाब की दुआ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सवाब की दुआओं ने गुनाह कर दिया मुझे
बड़ी अदा से वक़्त ने तबाह कर दिया मुझे

मुनाफ़िकत के शहर में सज़ाएँ हर्फ़ को मिलीं
क़लम की रौशनाई ने सियाह कर दिया मुझे

मिरे लिए हर इक नज़र मलामातों में ढल गई
न कुछ किया तो हैरत-ए-निगाह कर दिया मुझे

ख़ुशी जो ग़म से मिल गई तो फूल आग हो गए
जुनून-ए-बंदगी ने ख़ुद-निगाह कर दिया मुझे

तमाम अक्स तोड़ के मिरा सवाल बाँट के
इक आईने के षहर की सिपाह कर दिया मुझे

बड़ा करम हुजूर का सुना गया न हाल भी
समाअतों में दफ़्न एक आह कर दिया मुझे