भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सवेरा / ज़िया फतेहाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे लेनी है तूफ़ानों से टक्कर ऐ दिल-ए वहशी

कि अब आसूदगी साहिल की वजह ए सरगीरानी है
कि मैंने अब जुनून ए कशमकश की क़द्र जानी है
बहुत चलता रहा दामन बचा कर ऐ दिल-ए वहशी

मय-ओ मीना-ओ साक़ी का ख़याल ए जाँफ़िज़ा कब तक
न लेगा तू सहारा परतो ए शमशीर का कब तक
न तू आएगा कब तक रास्ते पर ऐ दिल-ए वहशी

किसी की रेशमी आँचल में कब तक मुस्कराएगा
जवानी की हसीं आग़ोश में तस्कीन पाएगा
मिटा जाता है झूटी राहतों पर ऐ दिल-ए वहशी

ये मज़हब आदमी को आदमी से जो लड़ाता है
ख़ुदा के नाम पर जो शैतनत को ख़ुद जगाता है
वो मज़हब इब्न-ए आदम का है रहबर ऐ दिल-ए वहशी

मुझे इंसानियत की मौत पर आंसू बहाने हैं
यतीमों और बेवाओं के अफ़साने सुनाने हैं
जो घरवाले कभी थे अब हैं बेघर ऐ दिल-ए वहशी

क़नूतियत तेरी रूहानियत का नक्श ए पस्ती है
ईलाही किस क़दर तखरीब परवर तेरी बस्ती है
जो अब तक बंद थे वो खोल दे दर ऐ दिल-ए वहशी

ज़माना तुझ से आगे और आगे बढ़ता जाता है
तेरी खुशफहमियों पर अज़म तेरा मुस्कराता है
कि पानी आ गया है सर के ऊपर ऐ दिल ए वहशी

लूँढा दे खुम, प्याले तोड़ दे, साक़ी को रुखसत कर
शुरू-ए दौर-ए नौ है, तेग उठा, परचम से उल्फत कर
न अपने माज़ी-ए मज़लूम से डर ऐ दिल-ए वहशी

गई शब् और हंगाम-ए तुल्लू-ए सुबह आ पहुँचा
सफ़ीना ज़ीस्त का मंझधार में ऐ नाख़ुदा पहुँचा
बदलना है मुझे तेरा मुक़द्दर ऐ दिल-ए वहशी