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सहजीवन / नीलम माणगावे

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क्यूँ चाहिए हमेशा हाथों में हाथ!
देखें, जरा छोड़ कर खुला उन्हें,
उड़ेंगे खुले गगन में।

कभी तुम आगे जाओगे;
कभी मेरे हाथ क्षितिज के बंधन तोड़ेंगे!
कभी तुम,
सागर की गहराइयों में डूब जाओगे;
और मैं,
खोजती रहूँगी ख़ुद को किनारों पे...
कभी तुम
सुलझाकर देखोगे खुद को
मौन राग गा कर
और मैं,
उछाल दूँगी स्वयं को
शब्दों में रंग कर...
कंकर पत्थरों पर चलते हुए,
फिसलन पर फिसलते हुए,
भोर के फूलों में खो जाते हुए

देखेंगे ख़ुद संभल सकते हैं क्या
एक दूसरे के सहारे बिना!
ना भी संभल सके तो देखें
दोबारा हाथों में हाथ ले सकते हैं क्या
एक दूसरे को पूछे बिना !


मूल मराठी से अनुवाद : स्वाती ठकार