Last modified on 17 फ़रवरी 2020, at 22:17

सहरा में तिश्ननगी अपनी / आनन्द किशोर

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:17, 17 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनन्द किशोर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

भटकती फिरती है सहरा में तिश्नगी अपनी
गुज़र रही है सराबों में ज़िन्दगी अपनी

मुहब्बतों के सफ़र में क़दम क़दम पे यहाँ
ग़मों की आग में जलती है हर ख़ुशी अपनी

ये और बात है क़िस्मत में हारना था लिखा
मगर न हमको थी उम्मीद हार की अपनी

हज़ार ऐब हज़ारों के हमने गिनवाये
लबों पे सबके है इस बार बस कमी अपनी

ग़मों का दौर भी काटा है हमने हंसकर के
गुज़र रही है मज़े से ये ज़िन्दगी अपनी

फ़क़त ग़ज़ल की बिना पर हमें सुना दी सज़ा
ग़ज़ल वो सच में मगर लाजवाब थी अपनी

हरेक लफ़्ज़ में ढाला है दर्द को अपने
हमें अज़ीज़ है 'आनन्द' शाइरी अपनी