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सहस्राब्द से क्रीड़ारत वह / जीवनानंद दास / सुरेश सलिल
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सहस्राब्द से क्रीड़ारत वह ऐसे
जैसे अंधकार में जुगनू :
चारों ओर पिरामिड फैले —
ताबूतों की गन्ध आ रही :
बालि द्वीप पर हंसे ज्योत्सना —
यहाँ-वहाँ छाया खजूर की
क्षत-विक्षत स्तम्भ के सदृश :
असीरियाई खड़ा हुआ मृत-म्लान ।
हमारी देहों से ममी की गन्ध_
चुक गए जीवन के सब लेन-देन,
"याद है न !" याद दिलाई उसने,
याद मुझे आई, बस्स ’वनलता सेन’।