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सहा-कहा / लीलाधर मंडलोई

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जाने कितना भरा हुआ यह रूह के सुंदर सामानों से
पैसा-धेला एक नहीं कि हाथ कब आया
आके जबरन बैठ गया बस राहू साहू
हमने तो बस रखीं छुपाके चीजें
थी कीमत तब जिनकी
कांच के टुकड़े जिनमें इंद्रधनुष थे
चंद झरे हुए पंख कि जो छत से टपके
कुछ अनहोने रंग थकी-बूढ़ी शामों के
रात-बिरात के किस्‍से जो कि लगे सुखद
डरे हुए तोतों की थोड़ी बची हॅंसी
पौधों से जो ली उधार नूर की बूंदें
चूल्‍हें की कुछ आग जो बाद में राख हुई
दबी-कुची कुछ चाह भी कि यह कभी तो होता
जब जो लगा काम लायक सा
झट से नजर बचाके हमने उठा लिया
पिसी-घुली मेंहदी के कुछ उजले छापे
सूखी विधवा आंखों टपके गीले मौन
दादा के बोतल की कुछ अंतिम बूंदें
मुन्‍नी की कुछ चुहलबाजियां, तुतले बोल
कुछ आहट, कुछ संदेसे, कुछ अशुभ वाणियां
सन्‍नाटों के राग अबूझ जो लगते अजीब
और कुछ चोटें जिनका दुखना अनकरीब है
चांद की लोरी, धूप की फुगड़ी, मान मनौव्‍वल
अच्‍छे सच्‍चे बाबूजी की टूटी ऐनक
काली कबरी बिल्‍ली का रोना इसमें
और मुंडेर पर कौओं की कर्कश पुकार
भूले-बीते सपनों का एक टूटा गहना
गिरवी हुए बर्तनों में से एक कि बचा हुआ
गिरे हुए भारी लम्‍हों की किरचन कुछ
जीना जिनसे दूभर लेकिन हंसना बचा हुआ
एक किताब के बने-अधबने पन्‍ने इसमें
जिसके कोर-कोर में ईश्‍वर घुसा हुआ
नातेदारों के कर्जों की फेहरिस्‍त यहां
और कुछ ऐसे लोग कि जिनसे बच्‍चों
जितना कमा सके सब इसमें धरा हुआ
पड़े जरूरत कभी जो इसकी सुध लेना
बहुत सहा-कहा पुरखों ने, गह लेना.