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सहे नदी / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

किसी से
कुछ भी न
कहे नदी ।
तन पर
बहुत चोट
सहे नदी ।
पर्वतों की
सहेजकर
लालसाएँ,
रात-दिन
चुपचाप
बहे नदी ।
आँसुओं के
दीप रह-रह
काँपते
चाँदनी का
हाथ
गहे नदी ।
लहर को
छूकर किनारा
सोचता-
कि कुछ पल
पास में
रहे नदी ।
-0-(20/3/91)-दैनिक भास्कर-2/4/95, रैन बसेरा मार्च-97)