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उनये उनये भादरे
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स्त्री वेद पढ़ती है
 
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रचनाकार: [[नामवर सिंह]]
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रचनाकार: [[दिनकर कुमार]]
 
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उनये उनये भादरे
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स्त्री वेद पढ़ती है
बरखा की जल चादरें
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उसे मंच से उतार देता है
फूल दीप से जले
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धर्म का ठेकेदार
कि झरती पुरवैया सी याद रे
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कहता है—
मन कुयें के कोहरे सा रवि डूबे के बाद रे ।
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जाएगी वह नरक के द्वार
भादरे ।
+
  
उठे बगूले घास में
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यह कैसा वेद है
चढ़ता रंग बतास में
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जिसे पढ़ नहीं सकती स्त्री
हरी हो रही धूप
+
जिस वेद को रचा था
नशे-सी चढ़ती झुके अकास में
+
स्त्रियों ने भी
तिरती हैं परछाइयाँ सीने के भींगे चास में ।
+
जो रचती है
घास में ।  
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मानव समुदाय को
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उसके लिए कैसी वर्जना है
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या साज़िश है
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युग-युग से धर्म की दुकान
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चलाने वालों की साज़िश है
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बनी रहे स्त्री बांदी
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जाहिल और उपेक्षिता
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डूबी रहे अंधविश्वासों
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व्रत-उपवासों में
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उतारती रहे पति परमेश्वर
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की आरती और
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ख़ून चूसते रहे सब उसका
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अरुंधतियों को नहीं
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रोक सकेंगे निश्चलानंद
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वह वेद भी पढ़ेगी
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और रचेगी
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नया वेद ।  
 
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13:24, 4 अप्रैल 2013 का अवतरण

स्त्री वेद पढ़ती है

रचनाकार: दिनकर कुमार

स्त्री वेद पढ़ती है
उसे मंच से उतार देता है
धर्म का ठेकेदार
कहता है—
जाएगी वह नरक के द्वार

यह कैसा वेद है
जिसे पढ़ नहीं सकती स्त्री
जिस वेद को रचा था
स्त्रियों ने भी
जो रचती है
मानव समुदाय को
उसके लिए कैसी वर्जना है

या साज़िश है
युग-युग से धर्म की दुकान
चलाने वालों की साज़िश है
बनी रहे स्त्री बांदी
जाहिल और उपेक्षिता
डूबी रहे अंधविश्वासों
व्रत-उपवासों में
उतारती रहे पति परमेश्वर
की आरती और
ख़ून चूसते रहे सब उसका

अरुंधतियों को नहीं
रोक सकेंगे निश्चलानंद
वह वेद भी पढ़ेगी
और रचेगी
नया वेद ।