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जब आततायी मारे जाते हैं
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गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
 
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रचनाकार: [[प्रियदर्शन]]
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रचनाकार: [[खातिर ग़ज़नवी]]
 
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एक
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गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
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लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गए
  
धूप धम-धम नगाड़ा बजा रही है
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गर्मी-ए-महफ़िल फ़क़त इक नारा-ए-मस्ताना है
बन्दूकें ताने खड़े हैं पेड़
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और वो ख़ुश हैं कि इस महफ़िल से दीवाने गए
सन्नाटे को सूँघ रही है उमसाई हुई जासूस हवा
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नदी यहाँ से वहाँ तक
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बारूद की तरह बिछी हुई है
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आततायियों से युद्ध के लिए तैयार है जंगल
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दो
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मैं इसे शोहरत कहूँ या अपनी रूसवाई कहूँ
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मुझ से पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए
  
आततायियों का इन्तज़ार करो
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वहशतें कफछ इस तरह अपना मुक़द्र बन गईं
तुम्हें मालूम है, वे आएँगे
+
हम जहाँ पहुँचे हमारे साथ वीराने गए
तुम्हें मालूम है, वे कहर ढाएँगे
+
तुम्हारी पीठ पर हैं उनकी चाबुक के ख़ुरदरे निशान
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तुम्हारे पेट पर है उनके बूटों के रगड़े जाने से बने दाग़
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तुम्हारी यादों में है एक जमा हुआ ख़ौफ़
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तुम्हारे दिल में है एक धधकता हुआ गुस्सा
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आततायियों का इन्तज़ार करो
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तुम्हें मालूम है,
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एक दिन वे मारे जाएँगे ।
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तुम्हारे हाथों ।
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तीन
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यूँ तो मेरी रग-ए-जाँ से भी थे नज़दीक-तर
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आँसुओं की धुँद में लेकिन न पहचाने गए
  
मरना-मारना दोनों बुरा है
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अब भी उन यादों की ख़ुश-बू जे़हन में महफ़ूज है
न अत्याचार करो, न अत्याचार सहो
+
बारहा हम जिन से गुलज़ारों को महकाने गए
लेकिन जितना पुराना यह सबक है
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उतनी ही पुरानी यह सच्चाई
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कि अत्याचार भी बचा हुआ है, आततायी भी बचे हुए हैं
+
कि यह दुनिया डरती रहती है
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मरती रहती है
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मरने का शोक भी करती रहती है ।
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लेकिन जब आततायी मारे जाते हैं,
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कोई शोक नहीं करता ।
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चार
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क्या क़यामत है के ‘ख़ातिर’ कुश्ता--शब थे भी हम
 
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सुब्ह भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए
सबसे मुश्किल होता है आततायियों को पहचानना ।
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जो सबसे पहले पहचान लिए जाते हैं,
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वे सबसे कमज़ोर या नासमझ होते हैं
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वे छोटे और मामूली लोग होते हैं
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वे मोहरे जिनका सिर कटा कर बचे रहते हैं भविष्य के बादशाह ।
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असली आततायी मीठा बोलते हैं
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बोलने से पहले तोलते हैं
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हाथों में दस्ताने चढ़ाते हैं
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खंजर में सोना मढ़ाते हैं
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उन पर अँगुलियों के निशान मिटाते हैं
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और बिल्कुल उस वक़्त जब तुम उनसे पूरी तरह बेख़बर या आश्वस्त
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अपना अगला क़दम रख रहे होते हो, वे तुम्हें मार डालते हैं
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तुम जान भी नहीं पाते कि तुम मारे गए हो
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यह ख़ुदक़ुशी है, अख़बार चीख़ते हैं
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नहीं, यह बीमारी है, सरकार चीखती है।
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कोई डॉक्टर नहीं बताता कि यह बीमारी क्या है।
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आततायी बस वादा करता है कि वह बीमारी से भी लड़ेगा ।
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पाँच
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आततायी से लड़ना आसान नहीं होता
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इसके कई ख़तरे होते हैं
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पकड़ लिया जाना, पीटा जाना, सताया जाना, मार दिया जाना--
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कुछ भी हो सकता है ।
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ये छोटे ख़तरे नहीं हैं ।
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लेकिन असली और सबसे बड़ा ख़तरा एक और होता है ।
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आततायी से लड़ते-लड़ते
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हम भी हो जाते हैं आततायी ।
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वह मारा जाता है, शहीद हो जाता है
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हम मारे जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता ।
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छह
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आततायी सबसे ज़्यादा किस चीज़ से डरता है ?
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इन्साफ़ से।
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जब इन्साफ़ संदिग्ध हो जाए तो वह सबसे ज़्यादा ख़ुश होता है ।
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ताउम्र वह इसी कोशिश में जुटा रहता है
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कि इन्साफ़ छुपा रहे ।
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उसकी सारी इनायतें, सारी रियायतें बस इसीलिए होती हैं
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कि इन्साफ़ की तरह पहचानी जाएँ
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कि चन्द राहतें पैदा करती रहें इन्साफ़ की उम्मीद
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और चलता रहे उसका खेल ।
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वह जुर्म भी करे तो इन्साफ़ मालूम हो
+
और
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जब उसे मारा जाए तो वह इन्साफ़ नहीं जुर्म लगे ।
+
 
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सात
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मैं क़ातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकता
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हर तरह की हत्या को ख़ारिज करती है मेरी कविता
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आततायी से मुक़ाबले के लिए आतयायी हो जाना मुझे मंज़ूर नहीं
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लेकिन कोशिश भी करूँ तो आततायी के मारे जाने पर
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कोई अफ़सोस मेरे भीतर नहीं उपजता ।
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मुझे माफ़ करें ।
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10:32, 18 जून 2013 का अवतरण

गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए

रचनाकार: खातिर ग़ज़नवी

गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गए

गर्मी-ए-महफ़िल फ़क़त इक नारा-ए-मस्ताना है
और वो ख़ुश हैं कि इस महफ़िल से दीवाने गए

मैं इसे शोहरत कहूँ या अपनी रूसवाई कहूँ
मुझ से पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए

वहशतें कफछ इस तरह अपना मुक़द्र बन गईं
हम जहाँ पहुँचे हमारे साथ वीराने गए

यूँ तो मेरी रग-ए-जाँ से भी थे नज़दीक-तर
आँसुओं की धुँद में लेकिन न पहचाने गए

अब भी उन यादों की ख़ुश-बू जे़हन में महफ़ूज है
बारहा हम जिन से गुलज़ारों को महकाने गए

क्या क़यामत है के ‘ख़ातिर’ कुश्ता-ए-शब थे भी हम
सुब्ह भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए