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विद्वान का ढेला
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इस कविता को सुला देना चाहिए

इसके पहले कि शुरू हो इसका विद्वान होना इसके पहले कि यह कविता शुरू हो

इसके पहले कि यह तारीफ़ें बटोरे किसी विस्मरण के पल में यह जीवित हो

इसके पहले कि अपनी ओर आते शब्दों और आँखों की यह अभ्यस्त हो

इसके पहले कि यह विद्वानों के उपदेश लेना शुरू करे

गुज़रने वाले राहगीर कतराकर गुज़र जाते हैं कोई भी नहीं उठाता वह विद्वान ढेला

उस ढेले के भीतर एक नन्हीं-सी, सफ़ेद, नंगी कविता जलती रहती है

राख हो जाने तक ।

(रचनाकाल : 2002-2003)