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साँझ-3 / जगदीश गुप्त

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किलयों के कर से जैसे,
प्याली मरंद की छलकी।
मेरे प्राणों में गँूजी,
रूनझुन रूनझुन पायल की।।३१।।

स्वगंर्ंगा की लहरों में,
शशि ने छिप जाना चाहा।
जिस दिन प्यासे नयनों ने,
उस रूप-सिंधु को थाहा।।३२।।

किस रूप-सिंधु को मथ कर,
विधि ने मुख-इंदु निकाला।
विष के प्रभाव से जल कर,
हो गई श्याम कच-माला।।३३।।

नयनों के निधनंजय ने,
पी लिया हलाहल सारा।
झलका श्यामल पुतली की,
गर्ीवा में बनकर तारा।।३४।।

इस तरल गरल से भीगी,
उठ गई दृष्टि दिश-दिश को।
दिन को सन्तप्त बनाया,
तमपूणर् कर दिया निशि को।।३५।।

मुख-इन्दु रिश्म-स्यंदन के,
चंचल चंचल मृग देखँू।
यदि मिले देखने को तो,
युग-युग तक युग दृग देखँू।।३६।।

दृग-समता को ले आऊँ,
आखें शशि के हिरनों की।
चढ़ व्योम-बाम पर जाऊँ,
लेकर कंमद किरनों की।।३७।।

तारावलियाँ संिचत कर,
दे डाली नवल प्रभा, या-
रिव को शशि को पिघला कर,
विरची विरंची ने काया।।३८।।

झलमल-झलमल होती थी,
वह देह-लता अम्बर में।
ज्वालाएँ सी उठती हों
जैसे अमृत के सर में।।३९।।

यौवन-प्रभात में मैंने,
उस कनक-लता को देखा।
ज्यों हरी दूब पर पड़ती,
सुकुमार धूप की रेखा।।४०।।

विकिसत सरोज बढ़ते हैं,
पर नहीं डूबते जल में।
फिर बसे नयन रहते क्यों,
मेरे मानस के तल में।।४१।।

हो गई मदन के धनु की,
डोरी कुछ ढीली-ढीली।
भौंहों को वंिकम करके,
जब चितवन चली रसीली।।४२।।

दशनावलियों के पीछे,
कुछ मुसकानें आ बैठीं।
शबनमी-राशि में जैसे,
रेशमी रिश्मयाँ पैठीं।।४३।।

यौवन-तरंग उठ-उठ कर,
खो जाती भुज-मूलों में।
छिव-सुर-तरंिगनी बहती,
आकुल दुकूल-कूलों में।।४४।।

अनबोली कली लजा कर,
छिप गई कहीं झुरमुट में।
मुकुलित सौरभ की गाथा,
गँूजी किव के श्रुतिपुट में।।४५।।