साँझ ही सोँ रंगरावटी मेँ मधुरे सुर मोदन गाय रही हैँ ।
सांवरे रावरे की मुसकानि कला कहिकै ललचाय रही हैँ ।
लालसा मे लछिराम निहोरि अबै कर जोरि बुलाय राही हैं ।
बैँजनी सारी के भीतर मेँ पग पैँजनी बजाय रही हैँ ।
लछिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।