भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साँसें (दो क्षणिकायें) / प्रांजलि अवस्थी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.
भारी कदमों से अपनी आहटों को
छिपाते हुये
दाखिल हो जातीं हैं
घने घुप्प अंधेरे में
अपना डर
अपनी मलिनता
अंदर छोड़ कर
निर्वसन
बाहर निकल जातीं हैं
दरअसल आवागमन
यदि दैनिक प्रक्रिया कि तरह हो
तो पद्चाप ध्यान देने योग्य
नहीं रह जाते ...

2.
माथे पर पड़ी
शिकन से ज्यादा
होंठो के दो किनारे फैल जाते हैं
इतनी दूर तलक
जहाँ
दूरी कुहासा और दुख
भाप की तरह महसूस होता है

और कुछ इस तरह
मैं आज भी
साँसों में भर लेती हूँ तुम्हें