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साँस के तकाज़े / राकेश खंडेलवाल

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हर कोई आया द्वार तकाज़े लिये हुए
हैं माँग रहीं साँसें जीने की मज़दूरी
लम्हा लम्हा ऋण को लौटाते बीत रहा
जाने कब हो पाये इसकी मियाद पूरी

धड़कन ने खाता खोल आज जब दिखलाया
कुछ भी था जमा नहीं, जो भी था नाम लिखा
उजरत की पूँजी घटती घटती दिखती थी
बस ब्याज, ब्याज पर बढ़ा ब्याज का दाम दिखा
दिन बन कर के लठैत, पथ में था खड़ा हुआ
उषा के कर से छीन चबैना ले जाता
संध्या मुनीम की पहरेदारी में बन्दी
फँस गया जाल में पँछी, तड़प तड़प जाता

थी इन्द्रधनुष की परछाईं जिसमें बाकी
जिसको अपना कहने का था साहस बाकी
रंगों की गठरी बनी जमानत कर्ज़ की
हो पाई नहीं साध कोई भी सिन्दूरी

आँसू की बून्दें तिरती रहीं निशा-वासर
थी सीपी किन्तु अभागन, बिल्कुल रिक्त रही
हर एक प्रश्न था पहले से कुछ अधिक कठिन
उत्तर की माला उलझी थी अव्यक्त रही
जो कुछ नकार था दिया किसी मद में आकर
वह बोध आज आँखों के आगे आता है
वह एक विरह का पल, जो केवल अपना है
गज़लों में गहरा अनायास हो जाता है

हर एक प्रतीक्षा दृढ़ है शिलालेख बनकर
अजनबी सांत्वना के, होकर बैठे अक्षर
उग रहे कुहासे संशय के हर एक कदम
हर एक कदम के साथ बढ़े पथ की दूरी

आँखों में बचे हुए हैं केवल वह सपने
जो किसी महाजन से उधार में पाये थे
कुछ राग भटकते आन कंठ में उतर गये
जो तानसेन ने बरसों पहले गाये थे
तरतीब नहीं पर शेष ज़िन्दगी में कुछ भी
हर दृश्य निगलती इक तिनके की ओट गई
दीपक का पाकर न्यौता बढ़ी चादनी जो
मल्हारी घटा उमड़ती देखी लौट गई

निष्ठायें सारी बुझी हुईं संकल्प लुटे
ढाई चालों से बच न सके, हर बार पिटे
दुलराते रहे, आस के बुझे हुए जुगनू
नित बढ़ी आज से, आगत के कल की दूरी