Last modified on 2 जनवरी 2010, at 15:24

साँस रोक कर याद करो भोपाल - 2 / विनोद दास

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:24, 2 जनवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अजीब दृश्य है

इस शहर में चारों तरफ़ आँखें ही आँखें हैं
चलती फिरती
गहरी सुर्ख़ आँखें
या खुली फैली निश्चल आँखें

फैली निश्चल आँखों को देखकर
मुझे लगता है
जैसे वे विनती कर रहे हों
अभी और दुनिया देखने की

थोड़ी दूरी पर
बकरी इस कदर सुन्दर लग रही है
कि मैं अपने आपको रोक नहीं पाता हूँ
मैं उसकी पूँछ छूता हूँ
उसके शरीर में कोई हरकत नहीं होती है
उमेठता हूँ कान
उसके शरीर में कोई हरकत नहीं होती है
मैं अपनी आँखों पर डालता हूँ ज़ोर
और हैरानगी से फेरता हूँ
उसकी त्वचा पर हाथ

उसकी त्वचा
न तो पत्थर की है
और न ही रबड़ की
उसकी त्वचा सिर्फ़ बकरी की त्वचा है
शत प्रतिशत बकरी की त्वचा
सिर्फ़ उसमें वह कंपन नहीं है
जिससे आ जाती
हथेलियों में गर्माहट

डरा हुआ
जब मैं सोचता हूँ
लोगों की आँखें फैली क्यों हैं
वे हिलती-डुलती क्यों नहीं
लोगों को छूने से
मेरी हथेलियों में क्यों नहीं आती गर्माहट

मेरा शरीर झनझनाने लगता है