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नाथ, सभी कुछ त्याग, जान कर झूठ ही,
खड़े तपस्वी-तुल्य कहीं ये ठूँठ ही!"
:"इन पर भी तो प्रिये, लताएँ चढ़ रहीं;:मानों फिर वे इन्हें हरा कर, बढ़ रहीं!":"कहीं सहज तरुतले कुसुम-शय्या बनी,:ऊँघ रही है पड़ी जहाँ छाया घनी!:घुस धीरे से किरण लोल दलपुंज में,:जगा रही है उसे हिला कर कुंज में।:किन्तु वहाँ से उठा चाहती वह नहीं,:कुछ करवट-सी पलट, लेटती है वहीं।:सखि, तरुवर-पद-मूल न छोड़ो तुम कभी,:एक रूप हैं वहाँ फूल-काँटे सभी!:फैलाये यह एक पक्ष, लीला किये,:छाती पर भर दिये, अंग ढीला किये,--:देखो, ग्रीवाभंग-संग किस ढंग से,:देख रहा है हमें विहंग उमंग से।:पाता है जो जहाँ ठौर, उगता वहीं;:मिलता है जो जिसे जहाँ, चुगता वहीं।:अत्र तत्र उद्योग सर्व सुखसत्र है,:पर सुयोग-संयोग मुख्य सर्वत्र है।":"माना आर्ये, सभी भाग्य का भोग है;:किन्तु भाग्य भी पूर्वकर्म का योग है।""प्रिये, ठीक है, भेद रहा है, नाम का,लक्ष्मण का उद्योग, भाग्य है राम का।""नाथ, भाग्य तो आज मैथिली का बड़ा,जिसको यह सुख छोड़, न घर रहना पड़ा।वह किंशुक क्या हृदय खोलकर खिल गया,लो, पलाश को पुष्प नाम भी मिल गया।ओहो! कितनी बड़ी केंचुली यह पड़ी।पवन-पान कर फूल न हो फिर उठ खड़ी!""आर्ये, तब भी हमें कौन भय है भला?वह मरने भी चला, मारने जो चला।अच्छा, ये क्या पड़े? बताओ तो सही;""देवर, सब सब नहीं जानते, बस यही।विविध वस्तुएँ हमें यहाँ हैं देखनी,पर इनसे क्या बनें न सुन्दर लेखनी?""ठीक, यहाँ पर शल्य छोड़कर शल गया,नाम रहै पर काम बराबर चल गया।मुस्तकगन्धा खुदी मृत्तिका है उधर,बनें आर्द्रपदचिन्ह, गये शूकर जिधर।देखो, शुकशिशु निकल निकल वह नीड़ से,घुसता है फिर वहीं भीत-सा भीड़ से।
</poem>
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