Changes

सुत मिलें स्वप्न में ही खोये!
मुँह छिपा पदों में प्रिय पति के,
आधार एक जो थे गति के,
कर रहीं विलाप रानियाँ थीं;
जीवन-धन-मयी हानियाँ थीं।
देखा वसिष्ठ ने और कहा--
"क्षर देह यहाँ का यहीं रहा।
वह श्वास-शृंखला टूट गई;
आत्मा बंधन से छूट गई!"
बोले सुमन्त्र कातर होकर--
"क्या हुआ देखिए, यह गुरुवर!
हा! अमर पूज्य इस भाँति मरें!
सुत चार कहाँ जो क्रिया करें?"
धैर्य देकर धीर मुनि ने ज्ञान के प्रस्ताव से,
तेल में रखवा दिया नृप-शव सुरक्षित भाव से।
दूत भेजे दक्ष फिर संदेश के अक्षर गिना--
जो बुला लावें भरत को प्रकृत वृत्त कहे बिना।
 
इस शोक के सम्बन्ध से--
सब देखते थे अन्ध से--
बस एक मूर्ति घृणामयी,
वह थी कठोरा केकयी!
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits