वह डील अपूर्व मनोहारी,
हेमाद्रि-शृंग-समताकारी,
रहता जो मानों सदा खड़ा,
था आज निरा निश्चेष्ट पड़ा।
मुख पर थे शोक-चिह्न अब भी,
नृप गये, न भाव गये तब भी!
या इसी लिये वे थे सोये,
सुत मिलें स्वप्न में ही खोये!
वह डील अपूर्व मनोहारी,
हेमाद्रि-शृंग-समताकारी,
रहता जो मानों सदा खड़ा,
था आज निरा निश्चेष्ट पड़ा।
मुख पर थे शोक-चिह्न अब भी,
नृप गये, न भाव गये तब भी!
या इसी लिये वे थे सोये,
सुत मिलें स्वप्न में ही खोये!