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सागर, नदी तुम्हारी, पर्वत गगन तुम्हारा / ब्रह्मदेव शर्मा

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सागर, नदी तुम्हारी, पर्वत गगन तुम्हारा।
इक हम नहीं तुम्हारे सारा वतन तुम्हारा॥

जो पास है हाँ उसपे नीयत बुरी तुम्हारी।
पर एक बात सुन लो जीवन रहन तुम्हारा॥

हर बात में तुम्हारी स्वारथ झलक रहा है।
काँटों के वास्ते ही खिलता चमन तुम्हारा॥

चहरे पर गंदगी है कुछ धूल जिस्म पर भी।
जलता हुआ अँगारा ज़ालिम बदन तुम्हारा॥

बेनूर हो गयीं हैं सारी ज़फाएँ तेरी।
कालिख पुता हुआ है सारा ज़हन तुम्हारा॥

बोझा बने हुए हैं सोचों के कारवां भी।
साँसें बताओ कब तक ढोएँ वज़न तुम्हारा॥