Last modified on 5 मार्च 2012, at 14:01

साड़ा चिड़ियाँ दा चम्बा वे, असाँ ते इक दिन उड़ जाना है / संजय अलंग


(कन्या भ्रूण हत्या और लिंग अनुपात कमी पर)

इस बार तुम फिर कम हो गईं
तुम्हारे सुनहरे पर, कमसीनियत, देवी होना
कुछ काम नहीं आया
 
अच्छा है, यह तो सब ओर आवाज़ है
अब न दहेज, न झुकना, न घृणा
कितनी ही मुक्तियाँ साथ हैं

बौर को भी शाख के साथ तोड़ कर रख दिया
श्वेत सूखे पहनावे का गणवेष है
धूसर सूखी पत्तियों में घबराहट है
चीख दर्ज की जा रही है
सुन कोई नहीं रहा

अलग धुन का राग है पर
समझ सब को आ रहा है
बचपन, ऊपर और नीचे से, दूर है
ओस पर जेठ की मार है
इसे ही बता रहे, प्यार हैं
 
सफलता लगातार ज़ारी है
आधी दुनिया को आधा करने की तैयारी है
सफलता जो मधुर नहीं पर गिनी जा रही है

अब छाती पर मोती नहीं, पत्थर है
माथे पर सिन्दूर नहीं कालिमा है
गौरया हेतु टहनियाँ शेष नहीं हैं

माहौल सिसक कर गा रहा है
साड़ा चिड़ियाँ दा चम्बा वे
असाँ ते इक दिन उड़ जाना वे
सुन कोई नहीं रहा