Last modified on 10 जनवरी 2009, at 19:25

साड़ी / मंदाक्रान्ता सेन

कमरे की ज़मीन पर पड़ी थी मुड़ी-तुड़ी साड़ी
जिसे छोड़ कर वह पगलाई जवान औरत
आधी रात निकल पड़ी थी दरवाज़े के बाहर

बाहर जहाँ फैला था अंतहीन खूँखार जंगल
वह निकली थी यह सोचकर कि
रोज़ बिकने से बेहतर है कि वह तैर कर पार कर जाए यह
निविड़ अंधकार
सरक ले इस अंधकूप से सुदूर कूल तक
(औरत का जीवन सरक कर जगह
बदलने के सिवा है ही क्या)

महामूर्ख वह लड़की नहीं जानती
अंधकार नहीं बनता कभी सहारे की नौका
और हर मोड़ पर घोंटेगी जीवन-नदी उसका गला
सरकने के लिए भी जानना ज़रूरी है तैरना
और (तैरना तो दूर) उसने तो सीखा तक नहीं
बिना तैरे जल-सतह पर बने रहना।
(हे भगवान ! अतिशय बेवकूफ़)
अवश्यंभावी घटा उसके बेड़े से निर्बन्ध होते ही
औचक कहीं से अवगुंठित आदिम संसार ने
रोम-रोम तक बेध दी उसकी अनावृत देह
अंधेरा अकेला न था
वह भरा था मृतभक्षी जीवों से
भीड़ के दुर्धर्ष लुंठन के बाद
नंगी धरती पर पड़ी थी उसकी टूटी-फूटी देह
उसकी गर्दन पर कसा था उसी का ब्लाउज
और थोड़े दिन बाद कुछ लोगों ने
उसे हड़बड़ी में दफ़ना दिया।

अब
पुराने कमरे में आ गई है एक नई लड़की
जो लिपटाए है अपने शरीर पर
वही तुड़ी-मुड़ी साड़ी।

मूल बंगला से अनुवाद : कुसुम खेमानी