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साथी आगू बढ़तें रहबै / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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हम्में चलतें रहबै, साथी आगू बढ़तें रहबै
गिरबै, उठबै, रूकबै नै, तनियो नै सुस्तैबै।
रूकै के बात तेॅ लिखलोॅ छै
अकरमलोॅ के इतिहासोॅ में,
डरतै वहेॅ तूफानोॅ सें
जे डूबलोॅ हास-विलासोॅ में।
अंधड़-बतास मुट्ठी में दाबी
बादल-बिजली साथ मचलबै।

लंबा डगर पथ सूनसान छै, काँटोॅ- कूसोॅ बियावान छै
मंजिल लेली दौड़ला पर भी, एैलोॅ तनियो कहाँ थकान छै।
शुभ काम शुभ मंजिल साथी, हिम्मत सें जोर लगैवै।

छंद-बन्ध जे टूटलोॅ छै, बीणा के तार बिखरलोॅ छै
गिरी-गिरी, फिसली-फिसली केॅ, ऊ काम करी दम लेना छै
बस तनी दूर बचलोॅ छै आबेॅ, मंजिल पावी केॅ ही सुस्तैबै।

ई कुहासोॅ तेॅ छँटबे करतै
सौसें दुनियां साथें चलतै,
छिन्न भिन्न होतै जड़ माथोॅ
जन-मन के जब पारा चढ़तै,
चिता शहीद के चंदन समझी, हम्में कपार सिर धरबै।
आँख-आँख देखै छौं तोरा
निरयासी केॅ ताकै छौं तोरा,
पंच देश के देखोॅ आबेॅ
धीरज टूटलै, तोड़ी कूल किनारा।
नव क्रांति के जयघोष करी केॅ, देशोॅ के मांटी अंग लगैबै
साथी आगू बढ़तें रहबै।