भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साथ-साथ / सुशील राकेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारी खुशियों ने पीछा करते हुए
मुझे डूबोया खुशियों में तुम्हारे
तुम साथ-साथ चले
और चल पड़ा नक्स-पा के साथ-साथ
तुमने चाहा दोस्त ! सदा मुस्कुराते रहो
तुम्हारा हर गम हमारा है
ठंडे ओंठों से निकला यह उवाच
मेरी बहुत-सी बातों में अपनापन दिखा
ऋतुचक्र के हर फूल खिलें
उम्र-दराज बाहों में
कांटों की भीड पर विश्वास न करना
पंख फैलाकर उन्हें समेट लूंगा
शब्द के हृदय में
गमकना
बरसना
लरजना
मुस्कुराना

इन्द्रधनुष नाप लेगा आकाश का रास्ता
जहां तुम्हारे आंखों की दीप्ति
मुझे अपना लेगी।