भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"साथ हरदम भी बेनकाब नहीं / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: साथ हरदम भी बेनकाब नहीं खूब पर्दा है यह! जवाब नहीं कैसे फिर से शु...)
 
छो ()
(कोई अंतर नहीं)

20:34, 28 जुलाई 2009 का अवतरण

साथ हरदम भी बेनकाब नहीं

खूब पर्दा है यह! जवाब नहीं


कैसे फिर से शुरू करें इसको

ज़िन्दगी है कोई किताब नहीं


क्यों दिए पाँव उसके कूचे में

नाज़ उठाने की थी जो ताब नहीं


आपने की इनायतें तो बहुत

ग़म भी इतने दिए, हिसाब नहीं


मुस्कुराने की बस है आदत भर

अब इन आँखों में कोई ख्वाब नहीं


मेरे शेरों में ज़िन्दगी है मेरी

कभी सूखें, ये वो गुलाब नहीं