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साध सुध की बीन / रामगोपाल 'रुद्र'

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साध सुध की बीन!

बाँध अब स्वर के अभंगी तार;
धुन उठे, घहरे, झरे झंकार
परस की पोरों पुलक की आँख
खोल, रे दृगहीन!

मीड़-पीड़ित मूर्च्छनाहत प्राण
लक्ष्यगत हों, ज्यों बरुण के बाण;
स्वरस-संध्वनि में विवादी माख
हो सहज लयलीन।

मोह की मिहिका पिये, निस्पंद,
रात-भर बेसुध रहे जो बंद,
सरस परस लहे खुलें वे पाँख
रश्मिधर, स्वाधीन!