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सारंग / शब्द प्रकाश / धरनीदास

57.

वरगे वरगीन राम के।टेक।
नजर गुजार भये साहेबके, जानो लायक कामके।
चेहरा-चित्र गुप्त लिखि लीनो, नफर भये बिनु दाम के।
पंच कल्याण पँखुरिया घोडा, दाग दगाओ नामके॥
जामिन संत अनंत पियारे, बाशिके सुख-धाम के।
खिमत प्रेम पेशकश जाजिर हारि आठो याम के॥
हारे सबै गनीम बेचारे, ठमके ठामहि ठामके।
धरनीदास विसास बढो मन, मगन महल विश्राम के॥1॥

58.

हित करि हरि-नामहि लागु।टेक।
घरी घरी घरियाल पुकारै, का सोवै उठि जागु॥
चोवा चंदन नित नित मलना, अरु अलबेली पागु।
सो तन जरे खरे जग देखो, गुदी निकारत कागु॥
मातु पिता परिवार सुता सुत, बंधु तिया रस त्यागु।
साधुन संगति सुमिरु सुचित होइ, जो सिर मोटे भागु॥
संतम जरे वरे नहि जब लगि, तबलति खेलहु फागु।
धरनीदास तासु वलिहारी, जँह उपजै अनुरागु॥2॥

59.

चित रे चिन्तामनि चेतु।टेक।
बाँधे अस्त्र जगतहीँ आये, अब जनि छाडसि खेतु॥
तब तोंपै कछु होय न ऐहै, श्याम चिकुर जब श्वेत।
वात पित कफ आनि घेरिहेँ, चन्द्र ग्रसै जिमि केतु॥
ताहि कहाँ विसराय बाबरे, जो सबहीँ भर देतु।
हाथ लये कछु साथ न जैहै, ले धन जोरे जेतु॥
आतम-रामसोँ वैर बढ़ाओ, पूजत पामर प्रेम।
धरनी बारंबार पुकारै, परमारथ के हेतु॥3॥

60.

भये दास विनोदानन्द के।टेक।
तब कायर टायर के ऊपर, अब असवार गयंदके॥
माला तिलक दया करि दीनों, परिचय काय स्वच्छन्दके।
द्वादशहू को भेद बतायो, सुमिरन शबद पसन्दके॥
ध्यान कह्यो मन मान हमारो, झलके झलके झूलन चंद के।
सनमुख अधर अपूरब दर्शन, विरखहु आनंद कंद के॥
काट्यो कर्म भर्म वन जार्यो, फारयो कागज फंदके।
धरनीदास मिले सत-संगीत, पार तरे दुख द्वंद के॥4॥

61.

भइ कंत-दास बिनु बावरी।टेक।
मोतन व्यापै पीर पिरीतम, मूरख जानै आवरी॥
पसरि गयो तरु प्रेम शाख सखि! विसरि गयो चित चावरी।
भोजन भजन सिंगार न भावै, कुल करतूती भावरी॥
क्षण-क्षण उठि उठि पंथ निहारोँ, बार बार पछतावरी।
नयनन अंजन नींद न लागै, दिवस विभावरी॥
देह दशा कछु कहत न आवै, जनु जल बोझी नावरी।
धरनि धनी अजहूँ पिय पाओं, सहजै अनंद-वधावरी॥5॥

62.

राम-भजन करु बावरे।टेक।
वेद संत जन कहत पुकारेँ, जो तेरे चित चावरे॥
कया द्वार होइ निरखु निरंतर, तहाँ ध्यान ठहरावरे।
तिरवेनी एक संगहि संगम, शून शिखर कँह धावरे॥
हछ उलाँघि अनाहद निरखो, अरध उरध मधि ठाँवरे।
रामनाम निशि दिन लौ लागै, तवहिँ परम पद पावरे॥
तँह है गगन गुफा गढ़ गाढ़ो जहँ ना पवन पछाँवरे।
धरनीदास तासु पद वंदे, जो यहि युक्ति लखावरे॥6॥

63.

जेहि दीनदयाल दयाकरै।टेक।
ताके सकल दयाल दसों दिसि, काल कुटिल पायन परै॥
सो जन सहज सुमेरु सरीखे, जगत जाल तिन ना परे।
द्वादश कला सूरके आगे, योगिनि जोती का धरै॥
जो निधि चहै सो आय रहै तँह, जो मुख कहै सो नाहि टरै।
वैकुंठ करे मिले कायासोँ, मुक्ति निशानी फाहरै॥
जप तप नेम तीर्थ व्रत संयम, दान ते काह सरै।
धरनी प्रभु जाको अपनावै, दरस परस तेहि पाप हरै॥7॥

64.

मेरो राम भलो व्यवपार।टेक।
वासो दूजो दृष्टि न आवै, जाह करोँ रोजगार॥
जो खेती तो वहै कियारी, गंग यमुन के पार।
राति दिवस वहु उदम करे बिनु, बीज बयल हर फार॥
वानिज करों तो वहै परोहन, भरो विविध परकार।
लाभ अनेक मिले सत-संगति, सहजहिँ भरत भँडार॥
जो जाचोँ तो वाहिहिँ जाचों, फिरों न दूजो द्वार।
धरती मन वच क्रम मन मानो, केवल अधर अधर॥8॥

65.

जिन भक्ति रामकी पाई।टेक।
मुक्त भये दुख सुखते दूटे, सहज साहेबी आई॥
बेटा व्याह वसंत दिवारी, सदा अनंद बधाई॥
प्रीति संग-संग उमँगि राति दिन बाजु निशान सदाई॥
तीर्थ पवित्र कियो पग परसो, यमकी जलनि बुझाई।
धरमराय को परम सनेही, वेद विमल यश जाई॥
आदि कुमारि आरती वारेँ, इन्दु करे सेवकाई।
ब्रह्मा विष्णु महेश सराहत, और को कौन चलाई॥
वैकुंठहु हरि-भक्ति विराजे, तब महिमा अधिकाई।
धरनी धन्य भकित चारों युग, तिहु पुर फिर दोहाई॥9॥

66.

हरिजन वा मदके मतवारे।टेक।
जो मद बिनु काठी बिनु भाठी, बिनहिँ अगिन उदगारे॥
वास अकास धरा धर भीतर बुंद झरे झलकारे।
चमकत चन्द अनन्छ बढ़ो जिय, शब्द सघन निरुआरे॥
विनु कर धरै बिनामसुख चाखै, बिनहि पियाले ढारे।
ता छिनु स्यार सिंह के पौरुष, यूथ गयंद जिरे॥
कोटि उपाय करै जो कोऊ, अमल न होत उतारे।
धरनी जो अलमस्त दिवाने, सो सिरताज हमारे॥10॥

67.

हरिरस अमल अमोलक आई।टेक।
पद्म पुरान भागवत गीता, वेदहु भेद बताई॥
काय कठौआ जीव-दया जल पोसत प्रीति बढ़ाई।
तव लगि नयनन देहु मरोरा, जब लगि धर चिकनाई॥
लेहु निचोय सहज रस नीको, सीठि भल विलगाई।
छनना साधु-संगति मति छाड़ो, जियको जाम भराई॥
प्रगटै जोति मोति घर बरसै, दरसै जगत हवाई।
लौवा लपकि गयंद गिरावै, बाघहि धरति बिलाई॥
गुरुगम पी लुकमा लौ लावहुस, घरहीं घर ठहराई।
धरनी कहत सुनो भइ संतो, जन्मन होत जमाई॥11॥

68.

हरिजन हरि के हाथ बिकाने।टेक।
भावे कहो जग धिग जीवन है, भावें कहो बौराने॥
जाति गँवाय अजाति कहाओ, साधु-संगत ठहराने।
मेटो दुख दारिद्र परानो, जूठन खाय अघाने॥
पाँच जने परबल पर पंची, उलटि परे बँदि-खाने।
छूटि मँजूरी भये हैं, हुजूरी साहेब के मन माने॥
निरदावा निरवैर सबहिते, निःशंका निरवाने।
धरनी काम राम अपनेते, चरन कमल लपटाने॥12॥

69.

अरे मन जपहु निरंजन देवा।टेक।
ब्रह्मादिक सनकादिक नारद, सुर नर मुनि गन सेवा॥
जाकी अस्तुति वेद विराजै, दश अवतार तरेवा।
जाकी आज्ञा चाँद सूर नित, निशि दिन उदय करेगवा॥
साधु सकल जाको यश गावैं, पार तरैं बिनु खेवा।
सब घट विल बसेँ अविनाशी, विरले जानहिं भेवा॥
प्रभु के भजन बिना नर प्रानी, कर्म कांट अरुझेवा।
धरनीदास कहै कर जोरे, मोहि अपनो करि लेवा॥13॥

70.

सबते प्रेम अपूरब बाता।टेक।
नारि प्रचारि परै वैसन्तर<ref>वैश्वानर</ref> समुझि प्रेम को नाता॥
सुअटा राम कहै कहवावै, लोग कहे यह ज्ञाता।
वनको जाय अनत चित अरुझो राम नाम न सोहाता॥
ज्यों कपि डोरी बाँधि वाजीगर, वहु विधि नाच नचाता।
छूटे छटकि चढो तरु शाखा, निरत सुरति विसराता॥
मूरख मूल विसारि विश्वंभर, डार पात भरमाता।
धरनी धन्य जक्त जन सोई, जिन हरि के रंग राता॥14॥

71.

जगमें ताको जन्म बखानो।टेक।
जाको मनुवा निरखि निरंतर, अभि-अंतर तलचानो।
हरिको<ref>राम रूप</ref> निरखु निज नयनन, उपजत अनुभव ज्ञानो।
तृष्णा मोह मया ममताके बंधन ते विलगानो॥
दया दीनत प्रेम-लीनता, साँसहिये ठहरानो।
सत्य शील संतोष सकल अंग, संगति साधु समानो॥
करनी कोइ करै विरलै जन, कथनी जग अरुझानो।
धरनी चरन शरन तिनके जिन, आतमा रामहि जानो॥15॥