भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सारा बदन हयात की ख़ुशबू से भर गया / आलोक श्रीवास्तव-१

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:39, 20 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-१ |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सारा बदन अजीब-सी ख़ुशबू से भर गया,
शायद तेरा ख़याल हदों से गुज़र गया।

किसका ये रंग-रूप झलकता है जिस्म से,
ये कौन है जो मेरी रगों में बिखर गया।

हम लोग मिल रहे हैं अना अपनी छोड़ कर,
अब सोचना ही क्या के मेरा मैं किधर गया।

लहजे के इस ख़ुलुस को हम छोड़ते कहाँ,
अच्छा हुआ ये ख़ुद ही लहू में उतर गया।

मंज़िल मुझे मिली तो सबब साफ़-साफ़ है,
आईना सामने था मेरे मैं जिधर गया।