भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सारे रंगों वाली लड़की-4 / भरत तिवारी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:49, 28 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भरत तिवारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सारे रंगों वाली लड़की
कहाँ हो?
ज्वार चढ़ी लहरें
सीने में
नहीं उतरती अब नीचे
नहीं सूखती
भीगी पलकें
रुकें ना कम्पन बदन का
रह गई किनारे पर जो लहरें
वही हूँ मैं
सारे रंगों वाली लड़की
कहाँ हो?
सूरज उतरा आँख में
डूबता जाता हूँ उसमें
आ रहा है अन्धेरा
लहरों के निशान
सूख निरा रेत होते
सारे रंगों वाली लड़की
कहाँ हो?
समन्दर हो, जलपरी हो
मेरी हो
ले जाओ मुझे
जलपरी।