भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सावन भादों में / नरेन्द्र दीपक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन डूब-डूब जाता है पिछली यादों में
अक्सर ऐसा होता है सावन भादों में

माटी की सोंधी गंध महकती है
जो सधी नहीं सौगंध महकती है
कितने खोये संदर्भ सिमिट आते
पीड़ाएँ बनकर छनद महकती है

कुछ खास पुराने दर्द ताजग़ी देते हैं
कितना सुख मिलता आँसू के अनुवादों में

रास रचाते हुए हंस के जोड़े
नृत्यांगना बिजली कलाइयाँ मोड़े
गीतवाहिनी ऋतु में भय लगता है
संयम उँगली अब छोड़े तब छोड़े

कोई गुनाह करने की तबीयत होती है
ऐसे सतरंगी मौसम के उन्मादों में

मन उड़ जाता गुलाब के फूलों पर
यौवन का भार झेलते झूलों पर
हस्ताक्षर करने को जी करता है
ऐसी ऋतु में सम्भव सब भूलों पर

बहुत याद आने लगता है कोई अपना
जो सचमुच अपना होता है अवसादों में।