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साहिलों पर उदासी रही / गौतम राजरिशी

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साहिलों पर उदासी रही
इक नदी फिर से प्यासी रही

रात ने नींद पहनी मगर
ख़्वाब की बेलिबासी रही

हुस्न तो खिलखिलाता रहा
इश्क़ पर बदहवासी रही

आज फिर कुछ न कह पाये हम
आज फिर बात बासी रही

कम न हो लम्स की आँच ये
बर्फ बस अब ज़रा-सी रही

जिस्म मंदिर हुआ सो हुआ
रूह तो देवदासी रही

क्यों चमन को भला दोष दें
जब हवा ही सियासी रही

मौत पर किसलिए रोयें हम
ज़िंदगी अच्छी-ख़ासी रही




(अलाव जून 2013 )