Last modified on 3 सितम्बर 2011, at 15:03

साहिल की रेत / सजीव सारथी

प्यासे ही रहे
साहिल की रेत की तरह,
दिन जलाए कभी
किरणें लपेटकर,
कभी सो गए
लहरें ओढ़ कर,
कितने कदम
दिल से होकर गुजरे,
कितनी स्मृतियाँ
राहों में गुम गयीं,
कितने किनारे
पानी में समा गए,
फिर भी
प्यासे ही रहे।

जिन्दगी तो थी वहीं
जिसके सायों को हमने
डूबते सूरज की आंखों में देखा था,
उस बूढ़े पीपल की,
छाँव में ही, सुकून था कहीं,
उन नन्ही
पगडंडियों से चलकर हम
चौड़ी सड़कों पर आ गए,
हवाओं से भी तेज़,
हवाओं से भी परे,
भागते ही रहे,
फिर भी,
प्यासे ही रहे।

एक नन्हीं-सी चिंगारी
कहीं राख़ में दबी थी,
लपक कर उसने
किरणों को छू लिया,
सूखे पत्तों को आग दी,
हवाओं में उड़ा दिया,

कहीं अपना था कुछ
जिसे खो दिया,
और मोल ले लिया,
एक चमकता हुआ "कतरा"
डूबते रहे,
डूबते ही रहे,
फिर भी,
प्यासे ही रहे,
प्यासे ही रहे।