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जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अँगअ्ंग-अँग अंग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुँही दुधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृँगार शृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
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