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सिंहासन विष बीज बो गया / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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दूध धार सी
अपनी नदिया
कोई आकर
कलुष धो गया।

शालि-भंजिकाओं के कूटे
हम ऊखल के
मौन धान हैं
किन्तु तुम्हारे महायज्ञ के
हम अक्षत शुचि
हव्य मान हैं
पत्र-पुष्प-प्रतिमा से लेकर
कीर्ति कलश तक
सर्जित हम से
जग की भूख-प्यास
मिटती है
कौन सोचता है
किस श्रम से?
अन्तस फटा
अधर जब काँपे
नव-नव
सृजन विहान हो गया।
हम जगते हैं युग जगता है
ग्रह नक्षत्र और ये तारे
युगों-युगों से इस धरती को
दिये हमी ने हैं उजियारे
युद्ध क्षेत्र से धर्म क्षेत्र तक
हुये हमारे भ्रू-संचालित
उदित
युगों की महासभ्यता
संस्कृतियाँ
हमसे संरक्षित
हम सोये तो युग सोया है
हम खोये
इतिहास खो गया।

सिंहासन बत्तीसा
विक्रम!
प्रश्न जटिल हैं ये बैताली
संस्कारों के महानाश को
रोयेगी कब तक वैशाली?
कब तक भरी सिसकियाँ पीना
प्यार, बन्धुता, मानवता को
कब तक खण्ड-खण्ड हो जीना
इस आँगन की वत्सलता को?
प्यार उर्वरा
अपनी धरती
सिंहासन
विष बीज बो गया।