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सितम तीर-ए-निगाह-ए-दिल-रूबा था / 'हिज्र' नाज़िम अली खान
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सितम तीर-ए-निगाह-ए-दिल-रूबा था
हमारे हक़ में पैग़ाम-ए-कज़ा था
हुआ अच्छा कि वो घर से न निकले
किसे मालूम किस के दिल में क्या था
मुझे वो याद करते हैं ये कह कर
ख़ुदा बख़्शे निहायत बा-वफ़ा था
उम्मीद-ए-वस्ल की हालत न पूछो
फ़क़त इक आसरा ही आसरा था
बहुत अच्छा हुआ वो ले गए दिल
बड़ा जिद्दी निहायत बे-वफ़ा था
नहीं मालूम उस कम-सिन को ये भी
हमारे दिल में क्या है और क्या था
न पूछो जलवा-गाह-ए-नाज़ का जमाल
हर इक महव-ए-जमाल-ए-दिल-रूबा था
सुना है मय-कशी करने लगा ‘हिज्र’
वो मर्द-ए-बा-ख़ुदा तो पारसा था