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सियासत सीख कर पछताए हो क्या / सुरेश स्वप्निल

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सियासत<ref>राजनीति</ref> सीख कर पछताए हो क्या
सलामत<ref>सुरक्षित</ref> सर बचा कर लाए हो क्या

उड़ी रंगत कहीं सब कह न डाले
हमारे तंज़<ref>व्यंग्य</ref> से मुरझाए हो क्या

लबों<ref>होठों</ref> पर बर्फ़ आँखों में उदासी
कहीं पर चोट दिल की खाए हो क्या

बहुत दिन बाद ख़ुश आए नज़र तुम
हमारे ख़्वाब से टकराए हो क्या

तुम्हारी नब्ज़<ref>नाड़ी, स्पन्दन</ref> इतनी सर्द<ref>ठण्डी</ref> क्यूँ है
किसी का क़त्ल करके आए हो क्या

सितम<ref>अत्याचार</ref> हर शाह करता है मगर तुम
किसी जल्लाद<ref>बधिक</ref> के सिखलाए हो क्या

नमाज़ें पढ़ रहे हो पंजवक़्ता<ref>पाँचो समय की</ref>
ख़ुदा के ख़ौफ़<ref>डर, भय</ref> से थर्राए हो क्या ?!

शब्दार्थ
<references/>