Last modified on 18 नवम्बर 2011, at 17:28

सिर पर आग (कविता) / कैलाश गौतम

सिर पर आग
पीठ पर पर्वत
पाँव में जूते काठ के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

यह तस्वीर
नई है भाई
आज़ादी के बाद की
जितनी क़ीमत
खेत की कल थी
उतनी क़ीमत
खाद की
सब
धोबी के कुत्ते निकले
घर के हुए न घाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

बिना रीढ़ के
लोग हैं शामिल
झूठी जै-जैकार में
गूँगों की
फ़रियाद खड़ी है
बहरों के दरबार में
खड़े-खड़े
हम रात काटते
खटमल
मालिक खाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

मुखिया
महतो और चौधरी
सब मौसमी दलाल हैं
आज
गाँव के यही महाजन
यही आज ख़ुशहाल हैं
रोज़
भात का रोना रोते
टुकड़े साले टाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।