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सिलसिला / कुमार राहुल

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कि जैसे उम्र एक वाकिया हो
और नींद कोई मुगालता

दर-ओ-दीवार में
उग आये हैं दरख्त कई

धुंध घेरे रहती है
शाम-ओ-शहर मेरे

किसी फरियादी की तरह
मिला हूँ ख़ुद से

सच है कि
अपनी ख्वाहिशों के बाहर
तो कोई भी नहीं

और मैं
इस्म-ओ-जिस्म के अलावा
हूँ भी तो क्या

उम्र एक सिलसिला है
कि जैसे ग़म तुम्हारा
ख़त्म हो कर भी नहीं होता ...