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सीता चलीं मायकें / दुर्गेश दीक्षित

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एड़ी-टेड़ी बाँसुरी,
बजाबेबारौ कौन,
सीता चलीं मायकें,
लौटाबेबारौ कौन?

आज आदमी निज स्वारथ में, ऐंन आँदरौ हो रओ,
मानुस होकैं मानवता खौं, काए कुजानें खो रओ।

असगुन हो रए रोज चौगुने,
बिगरत जा रओ सौंन।

कैबे सुनबे जान चिनारी, कोऊ काम नइँ आबैं,
थायँबताकै हमें ऊथली, लै गैरे खौं जाबैं।

दूध बिलइयाँ पिएँ मजे सें,
हमें मठा कौ धौंन।

चोर-चोर मौसेरे भइया, पेरैं अपनी घानी,
अपुन मसकबैं माल मजे सैं, हमें पिआ दएँ पानी।

फोरा पारैं और जरे पै,
डारैं रोजऊँ नौंन।

चोर-बजारी करैं प्रेम सैं, हरिसचन्द के लरका,
सज्जनता की नई सड़क पै, बड़े-बड़े भए भरका।

अपने काजै डैवड़ौ दूनौ,
और काउऐ पौंन।

नीत-न्याय की बात करौ नइँ, भरौँ मच गओ भारी,
मौं पै मीठे बोल, बगल में दाबैं फिरैं कटारी।

तनक भले की बात चलै तौं,
हो-हो जाबैं मौन।

सत्य अहिंसा धरम नीति के, क्वाउत जौन पुजारी,
निकरत बेइ कुकरमी पापी, असली अत्याचारी।

बेइ प्रगत के महाखम्भ की,
पकरैं बैठे टौंन।