भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुकुमारी, उठाओ अवगुंठन! / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुकुमारी, उठाओ अवगँठन!
फूटी आती है रूप-सुधा, तारक अम्बर-पट से छन-छन!
सुकुमारी, उठाओ अवगंुठन!

छवि-धाम दिखाओ मुखमण्डल,
चिकने, उर्मिल, कज्जल कुंतल,
जल-विरही व्याकुल मीनों-से कजरारे, लाज-भरे लोचन!
सुकुमारि, उठाओ अवगुंठन!

दिखलाओ कोमल स्निग्ध अधर-
(ऊषा के जल-क्रीड़ा पुष्कर)
नवनीत कपोलों पर कितने मधु-भोर विचरते रागारुण!
सुकुमारि, उठाओ अवगुंठन!

नव इन्दु-कला-सी, सुरभि-सनी,
मुसकान दिखाओ मृदु अपनी!
मधुहासिनि, देखूँ वाणी से कितने मरु होते हैं मधु-वन!
सुकुमारि, उठाओ अवगुंठन!

देखूँ यम-बन्धन सी वेणी-
जूड़े की राका-शशि-श्रेणी!
देखूं बेंदी में अरुणोदय; पल भर कर लेने दो दर्शन!
सुकुमारि, उठाओ अवगुंठन!

फूटी आती है रूप-सुधा, तारक अम्बर-पट से छन-छन!
सुकुमारि, उठाओ अवगुंठन!