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सुजान / कुमार राहुल

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जिन्दगी की किताब में
कितने ही ऐसे फलसफें हैं
जिनका न कोई आगाज़ है
न कोई अंजाम...
मोहब्बत भी आसान नहीं सुजान...

उम्रें जाया हो जाती हैं
पढ़ते-पढ़ते आँखें
दुख जाते हैं कल्ले
ख़ुद को ही समझाते-समझाते
ओस चाट कर
बुझानी पड़ती है प्यास
लग जातें हैं अनगिन दीमक
अपनी ही रूह को धीमे-धीमे...

देवघर और कुल्टी के बीच
कितने हाल्ट हैं
कभी की है कोशिश जानने की?
या फिर सुलगा चुके हो
जितनी सिगरेटें अब तलक
कह सकते हो
कि तुम्हारे बाद
माँ पका पाएगी
कितने दिनों तक
उसी आग पर
अपने लिए रोटी?

तुमने मोहब्बत नहीं
भांग पी रखी है दोस्त
मज़्ज़ सर्दी में
नंगे दौड़ जाओगे
और होश नहीं आएगा

जब तक जागोगे
सब लौट चुके होंगे
अपने-अपने घरों की ओर
देर बहुत देर पहले...