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सुण म्हारा इस्ट! (चार) / राजेन्द्र जोशी

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सुण म्हारा इस्ट!
जनकवि री सुण
उण रो संसार अणंत है
बो सोधै थनै
आपरी कविता मांय
कवि रो धरम है मिनखपणो
नीं जावै जोतसी कनै
नीं जावै मिंदर अर तीरथ।
जनकवि री कविता
मिनख रै मूंढै बोलै
कवि री कविता री भासा
मिनख रै दुख नै साम्हीं राखै
जठै ऊभो है थूं
थारी सगळी ठौड़
जठै थूं पसर्योड़ो है
पूग्योड़ो है जनकवि
आपरी कविता सारू।
उठै ईज सुण सकै
सुण अेकलो बैठ'र
कोई पंथ अर जात नीं है
राज रो संदेसो नीं है
नीं है थारी भगती
मिनख रो दुख है
इण कविता रै सबदां मांय
मिनख री जात है
जनकवि री कविता।