Last modified on 19 जून 2019, at 02:59

सुनरहे हैं न आप / संतोष श्रीवास्तव

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:59, 19 जून 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कल रात भर
समन्दर मुझे पुकारता रहा
दबे पाँव उसकी आहट
मेरे ज़ेहन से टकराती रही
सुबह देखा तो बस
दूर तलक पानी का विस्तार

कहाँ है इस आवाज़ की शक़्ल
जो रात भर मुझे
अपने पाश में
जकड़ती चली गई थी

मैं देख रही हूँ अनझिप
पानी पर उमड़ती लहरें
जिस पर लहरा रहा
मेरा, आपका, हम सबका भविष्य
क्योंकि सत्ता भी बेशक़्ल है
 
उसकी भयानक आवाज़
सुन रहे हैं न आप ???