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सुना है कूच तो उन का पर इस / वाजिद अली शाह

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 सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
 ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा-ए-ख़ुदा कहिए

 मिसी लगा के सियाही से क्यूँ डराते हो
 अँधेरी रातों का हम से तो माजरा कहिए

 हज़ार रातें भी गुज़रीं यही कहानी हो
 तमाम कीजिए इस को न कुछ सिवा कहिए

 हुआ है इश्क में ख़ासान-ए-हक़ का रंग सफ़ेद
 ये क़त्ल-ए-आम नहीं शोख़ी-ए-हिना कहिए

 तोराब-ए-पा-ए-हसीनान-ए-लखनऊ है ये
 ये ख़ाक-सार है 'अख़्तर' को नक़्श-ए-पा कहिए