Last modified on 8 मार्च 2013, at 20:44

सुनो कबीर! / प्रतिभा सक्सेना

एक नन्हीं-सी ज्योति!
माटी में आँचल में अँकुआता बीज,
काल -धारा में बहे जा रहे जीवन को
निरंतरता की रज्जु में बाँधता.
भंगुर-से तन में सँजोए नव-निर्माण कण,
काल से आँख मिलाती नव-जीवन रचती
धरती या नारी ?

उस अंतर्निहित ज्योति का स्फोट,
दर्पण पर प्रतिवर्तित असह्य प्रकाश!
स्तब्ध काल-भुजंग अंधिया जाये,
अपना दाँव न चल सके,
तो तुम सहानुभूत या भय-भीत से
बोल दिए -
'नारी की छाया परत
अंधा होत भुजंग!'

निःस्व समर्पण के क्षणों में
बहुत भाती है न बहुरिया ?
फिर मस्ती में डूबा मन, और आहत अहं
जब बिठा नहीं पाता संगति,
व्यवहार -जगत की वास्तविकताओं से,
परिणामों से दामन बचा,
बचते-भागते,
उसी पर दोष धरते, गरियाते,
बन जाते हो ख़ुद
राम की बहुरिया!

सोचते रहते हो -
'तिनकी कौन गति
जे नित नारी संग?'
सुनो कबीर,
जिसमें सामर्थ्र्य होगी,
भागेगा नहीं,
अर्धांग में धारण कर
बन जाएगा पूर्ण-पुरुष!
निर्भय-निर्द्वंद्व!